इस गली की अब उमर हो चली है -
अलकतरे में दरारें हैं जैसे मेरे चेहरे पर लकीरें।
खेल वही हैं, खेलते चेहरे अनजान।
पर यह गली मुझसे मेरा नाम नहीं पूछती -
पूछती है तो सिर्फ यह सवाल -
बड़े दिन हुए तुम आए, रस्ता तो नहीं भूल गए?
बर्गद के पेड़ पर एक चबूतरा था,
वह आज भी तना बैठा है।
उसके कोने को कुचरता था मैं –
कांटी से अपना नाम गोदा था –
वह निशान आज भी है।
चबूतरे पर कभी carrom, कभी ताश की बाज़ियां लगतीं -
वह महफ़िलें आज भी लगती हैं -
बस शागिर्द मुझसे जवान और अनजान हैं।
लगता है मेरी ही उमर हो चली है, यह गली अब भी जवान है।
फुरसत में भीगी वो दुपहरें,
कड़कती गर्मी में नीम की छाँव,
हाथ में आम और दोस्तों का साथ,
लड़कपन के छुटके झगडे, बेपरवाह ख़याल -
बिना रुकावट के सपने बेलगाम…।
इसी गली की सरलता ने पहाड़े सिखाये,
यहीं भटकते सुलझाई physics की पहेलियाँ –
जिससे समझा इस गली पर अपने displacement का राज़।
आज कितनी भी बड़ी गाड़ी हो अपनी लम्बी सड़को पर,
Cycle से गिर कर उठना इसी गली ने सिखाया।
शाम में खेले cricket के matches,
पड़ोसी के छत्ते पे छक्का ज़माने पर out हो जाना -
वही आंटी जो ball वापस नहीं करती थीं -
आज मिलने पर जुग जुग जियो बेटा बोलती हैं।
इस गली ने सिखाया सपनों पर लगाम न लगाना,
यहीं से जाना जीवन का मूल -
ज़िन्दगी ke हर सड़क पर चलना, पर अपनी गली न भूलना।
– अंकित कुमार